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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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यार की गली में

यार की गली में

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यार की गली में

फूलों से रूबरू हैं

बात करने का मन हुआ तो

बोल उठे

पहले मेरी तरह मुस्कराओ

मुस्कराया तो बोल उठे

लो मैं,तुम हुआ

और यूँ ही महकते हुये

सपनों को स्पर्श करते हुए

यार की गली में

बेखबर से हम

रूबरू हैं खुद से

और देख रहे हैं

लोगों का आना जाना

बात करते हुए फूलों से।

फूल भी इतरा रहे हैं

महक ही नहीं

चुम्बन भी चस्पा कर रहे हैं

शरीर की मिट्टी पर

कहीं कोई इश्तेहार नहीं है

पर सब इश्तेहार सा है

कभी आइए 

यार की गली में

और रूबरू हो लीजिये खुद से

तलाश का विराम

और सफर की शुरुवात

यूँ ही होती है यहाँ।

शस्त्र सा समर्पण है

और विध्वंस सा खोनापन है

और क्या चाहिये

जीवन को

परमात्मा को।


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