याद-ए-शहर
याद-ए-शहर
आज बड़े अरसे बाद
याद-ऐ-शहर से गुजरा हूँ ,
तो क्या देखता हूँ ?
सड़कें अब टूट चुकी हैं,
जो उसके घर कि तरफ जाती थी।
आशियाना अब खंडहर हो चुका है,
जो उसके संग कभी बनाया था।
गलियाँ अब वीरान पड़ी है,
जो कभी उसकी मधुर बातो से गूंजती थी।
वो किस्सा पुराना हो चुका है,
जो तुमने हदों से पार
उतरकर मुझे अपनाया था।
आज बड़े अरसे बाद
याद-ऐ-शहर से गुजरा हूँ,
तो क्या देखता हूँ ?
वीरान पड़ा ये शहर
कभी आबाद चमन था
उस ठौर वहाँ
पानी का झरना था।
किनारों पर वृक्षों से
आलिंगन करती लताएं थी।
पगडंडी जो तेरे घर को जाती,
शेफाली और मालती से सजी थी।
और उस पौखर में
हंसों का जोड़ा था।
उस और कोई कोई कन्हैया
प्रेम मुरली बजाया करता था।
इस छोर कोई मीरा बन के जोगन
नृत्य किया करती थी।
तितलियों का वह झुंड फूलों का
रसपान किया करती थी।
उस रात बादलों की ओट में
छिपकर,चाँद भी शरमाया था।
जब लग कर गले तुमने,
रूह को मेरी जगाया था।
याद है वो बारिश,
जो रूठी धरती को मनाती थी।
वो बहती हवा जो मेरे चुम्बन को
तेरे होठों तक पहुचाती थी।
आज बड़े अरसे बाद
याद-ऐ-शहर से गुजरा हूँ,
तो क्या देखता हूँ ?
जुनून से मेरे बाहर सब कुछ
आबाद हो चुका है,
पर मेरे अंदर सब कुछ
वीरान हो चुका है।