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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

Abstract

व्यक्त हो रहे हैं

व्यक्त हो रहे हैं

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आज उगते हुए सूरज की

आंखों को स्पर्श करती हुयी

रश्मियों की एक स्वाभाविक

प्रवृत्ति से रुबरु होने का अवसर मिला

यह एक प्रेरणा थी

जिसे आत्मसात कर लिया हमने

गुरुत्व की तरह

और निर्देश था व्यक्त हो

तो व्यक्त हो रहे हैं

ठीक ठीक इसी तरह

दीदार हुआ था उसका

वो मेरे प्यार में था

तो मुझे भी उससे प्यार है

और जब भी मैं खुद में

होता हूँ उसके साथ

ये दुनिया अंतर्ध्यान हो जाती है

दूर दूर तक कुछ नजर नहीं आता

न कोई आवाज, न कोई दृश्य

दिलचस्प है ये कि

जो अदृश्य है

वही दृष्टिगोचर हो रहा है

और जो है वो अदृश्य हो गया है

अब करना क्या है

इस दृश्य में ढूंढना है अदृश्य

और आप देख रहे हैं वो है

अदृश्य होकर भी

और हम सरलता से व्यक्त हो रहे हैं

और आप सुन रहे हैं।


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