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Alka Soni

Abstract

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Alka Soni

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वसुधैव कुटुम्बकम

वसुधैव कुटुम्बकम

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अपनी ही नीड़ में सिमटती सी

जा रही है दुनिया।


अब कहाँ किसी की सुनती

है ये दुनिया।


मिटाकर वजूद हरियाली का,

दम्भ से है मुस्कुराती।


बंजर अपनी जमीन को बनाती

जा रही है ये दुनिया।


हंसते फूलों को भूलकर,

प्लास्टिक के फूलों को है सजाती।


प्रकृति से नित दूरी बनाती,

जा रही है ये दुनिया।


घर आये 'अतिथि' अब,

"देव" नहीं लगते !!


वसुधैव कुटुम्बकम को भूलती,

जा रही है ये दुनिया !!



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