STORYMIRROR

Shashikant Das

Abstract

4  

Shashikant Das

Abstract

वसंत की होली

वसंत की होली

1 min
301

अँधेरे और उजालो की तरह

ऋतुएँ तो आती जाती रहती है,

नदी के प्रवाह जैसे जीवन की नौका

यहाँ सदैव बहती रहती है ।


एक ऋतु जिसमे झूम उठे

ये धरा और ये गगन,

पूरी कायनात को चल जाये पता

जब हो रहा हो वसंत ऋतु का आगमन ।


पुष्प और पत्ते भी खिल उठते है

अपने जीवन की मुस्कराहट संग,

वीरान पड़ी बागानों को मिले सन्देश की 

समाप्त हो रही है उनके जद्दोजहद की जंग ।


इंसान के मुठ्ठी भी बंध जाये

भिन्न भिन्न रंगो की झोली,

मन मस्तिक भी संग चल पड़े

लेके दोस्तों की टोली ।


कहीं चलती है होलिका दहन की कथा

तो वृन्दावन में छिड़ती है प्रेमलीला की प्रथा,

सबकी आत्मा में छिपा है भिन्न आस्था

हर गली नुकड़ करती है अपनी पूरी व्यवस्था ।


गुलाल, अबीर , और पिचकारी के चलते हैं फवारे

शरीर के सारे अंग कहाँ बचते हैं इससे बेचारे,

खुद को न पहचान सके ऐसी होती है तस्वीरें

मस्ती भरे माहौल में बंध जाये ये पल हंसी सुनहरे ।


दोस्तों, इन भिन्न रंगो के समक्ष

हम सभी हमजोली है,

खूब खेलो और न करो पक्ष और विपक्ष

क्यूँकि ये तो होली है ।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract