STORYMIRROR

Dr Priyank Prakhar

Abstract

4  

Dr Priyank Prakhar

Abstract

वसीयत

वसीयत

1 min
108

वसीयत लिखनी है मुझको अपनी,

किसी के नाम करनी है कुछ चीजें अपनी,

ये नाम ये दाम और कुछ जरूरी काम,

जमा कर रखी है और भी चीजें तमाम।


ढूंढता हूं मैं एक ऐसा शख्स कोई,

मिल जाए जिसमें अपना अक्स यों ही,

भले ना मिलते हो हमारे नैन नक्श कोई

पर ना हो उसने कभी कोई चीज खोई।


कहीं पूंछे ना वो है कितना माल असबाब,

क्या क्या दोगे आप मुझको जनाब,

नहीं पता मुझे होगा क्या मेरा जवाब,

क्योंकि कभी रखा नहीं मैंने कोई हिसाब।


लगाए थे कुछ झाड़ पर ना गिनी कभी टहनी,

ईमान था वो पैरहन जो दिन रात मैंने पहनी,

सुनता रहा बस मैं अपने दिल की कहनी,

बस यूं ही कर डाली मैंने तमाम उम्र अपनी।


बताने को जमाने से कुछ तो कैफियत चाहिए,

हो सके जिक्र जिसका वो हकीकत चाहिए,

नाम ईमान और इंसानियत तो बस बातें हैं,

लिखने को वसीयत कुछ तो हैसियत चाहिए।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract