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manish bhatnagar

Abstract

5.0  

manish bhatnagar

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वृक्ष तुम विशाल हो

वृक्ष तुम विशाल हो

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तुम हो विशाल तुम हो विराट 

है विस्तृत गर्वित मुख ललाट  

तुम भीमकाय तुम धरा राज 

जीवन का हो तुम मधुर साज़।


गर्मी सहते, सर्दी सहते 

हँसते रहते, कुछ न कहते 

बदले मौसम बदले ऋतुए 

तुम अडिग, मौन, अविचल रहते।


जीवन क्या है ? तुमसे जाना 

जीवन का मकसद पहचाना 

जीवन की इस मृगतृष्णा में 

हर हाल में मुझको मुस्काना।


कतरा-कतरा अपना तुमने 

जन मानस हित में लगा दिया 

खुद धूप सही, पर छाया दी 

कुछ न माँगा, सब वार दिया।


बचपन से पचपन तक तुमने 

हर हाल में मुझको बहलाया  

जब आया अंत समय मेरा 

शैया बन मुझको सहलाया ।


जीवन को प्रेरित करते हो 

हर सांस में "जीवन" भरते हो 

आंधी आयें पतझड़ आयें 

तुम फिर सजीव हो उठते हो।


सबको देते - ठोकर सहते 

फिर भी तुम उफ़ न करते हो 

किस मिटटी के तुम बने "मौन"

इतना सब सहते रहते हो!

तुम निर्विकार, तुम हो विराट 

जीवन परिभाषित करते हो !


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