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manish bhatnagar

Abstract

5.0  

manish bhatnagar

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ऐ ज़िंदगी

ऐ ज़िंदगी

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ऐ ज़िंदगी,

तू कभी न ख़त्म होने वाला सफ़र है 

जहाँ एक ओर गहन शांति है,

वहीँ आँधियों और तूफानों का सैलाब भी है !


ऐ ज़िंदगी

मुझे तुझसे कोई रंज नहीं है

मै तो हर रंग मैं

हर रूप में तेरा इस्तकबाल करता हूँ


हर सुख में एक टीस को

और हर ख़ामोशी में 

एक कुहुक को सुनता हूं|


अंधेरों से मुझे उल्फत है

हर उजाले की रुखसत का

मैं इंतज़ार करता हूं|

मैं तो वो हूं

की काँटों में फूलों का शुमार करता हूं


ऐ ज़िंदगी!

रे कफ़न की सेज कितने

पैबन्दों से सजा रखी है

हर बार तेरे दीदार की आरज़ू ही तो है

जो अब तक बचा रखी है


ऐ ज़िंदगी

तू एक ऐसी गुमनान शख्स है

जिसे हर बार मैं नाम देता हूं


एक ऐसा बेरंग पर्दा है

जिसे मैं अपनी कल्पना के रंगों का

अंजाम देता हूं

तू एक ऐसी आवाज़ है 

जिसमे हर बार मैं

अपनी अभिव्यक्तियों की

कसक सुनता हूं


तू एक ऐसा साहिल है

जिसकी ज़रुरत

हर बार मेरी नाव को पड़ती है 

तू एक ऐसी पालदार नैया है

जोमेरी भावनाओं की खिवैया है


तू एक सहचर है मेरी

जिससे नहीं होती कभी तकरार

एक ऐसा दर्पण है जिसमे 

बार -२ नहीं पड़ती दरार!


ऐ ज़िंदगी,

लगता है तुझसे कोई पुराना रिश्ता है

नहीं तो क्यों हर बार

जब भी तुझसे रूबरू होता हूं

इन आँखों से नीर रिसता है ?


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