बचपन की वो दिवाली
बचपन की वो दिवाली
चलो आज मुद्दतों बाद मुस्कराया जाये
बहुत हो लिए ग़मगीन
मन के सूने आँगन में
क्यों न एक ठहाका लगाया जाये
चलो, आज, एक दीपक जलाया जाये !
यादों की बस्ती से गुज़रता हूँ जब
धूमिल चेहरे विस्मृत हो उठते हैं ..
राहें वही हैं, सिर्फ राही नए हैं
क्यों न बचपन के गलियारों में
अपना अक्स तलाशा जाये
चलो, आज, एक दीपक जलाया जाये !
आज भी चौराहे पे दीये तो बिकते हैं
सब कुछ वही है
सिर्फ अहसास सिसकते हैं
दीये तो मिलते हैं, रौशनी नहीं मिलती
फिर क्यों न दीये के साथ
मिठास से रोशन कर देने वाली
उस "अम्मा" को तलाशा जाये
चलो, आज, एक दीपक जलाया जाये !
सर्दियों की चादर लपेटे
गांवों का वो बचपन
जैसे शहर की गलियों में दफ़न हो गया
मासूम, बेख़ौफ़, बेफिक्र "मैं"
न जाने शहर में कहाँ खो गया
क्यों न पुराने संदूक में
यादों को टटोला जाये
चलो, आज, एक दीपक जलाया जाये !
हाँ, यहीं तो खेले थे हम
वही दरख्त, वही मैदान याद आता है
अरे, यहीं तो मेरी किलकारियां गूंजी
वो पुराना मकान, वो निष्क्रिय सामान
बीते वक़्त की बेपनाह
याद दिलाता है !
क्यों ना खुशनुमा यादों के पिटारे को
फिर से सजाया जाये
चलो, आज, एक दीपक जलाया जाये !
खील, बताशे से भरी वो कुलियाँ
स्वर्ण कलश के माफिक लगती थीं
मिठाई के वो छोटे टुकड़े
उस पर भाई बहन के वो झगड़े
आज सब कुछ है, पर वो बचपन कहाँ!
फकीरी में अमीरी का वो गर्व कहाँ!
क्यों न, बचपन देने वाली
उस “अम्मा” को बुलाया जाये
चलो, आज, एक दीपक जलाया जाये !
दिवाली के अगले दिन
वो मोमबत्ती की फैक्ट्री चलती थी
सोच के भी हंसी आती है
ह्रदय में कैसी कारीगरी पलती थी
अधजले, बिन जले पटाखों को खोजा जाता था
इस काम के लिए मित्रों की
फ़ौज को भेजा जाता था
कहाँ गए वो "मित्र", वो संगी साथी ?
क्यों न उन रूठी यादों को मनाया जाये
चलो, आज, एक दीपक जलाया जाये !
