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मिली साहा

Abstract

4.8  

मिली साहा

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वो सतरंगी पल

वो सतरंगी पल

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वो सोंधी-सोंधी खुशबू गाँव की मिट्टी की,

वो हरे भरे लहराते खेत और छाँव बरगद की,

यादों की खिड़की से अक्सर दिल में झाँका करते हैं।


वो चूल्हे पर बनी माँ के हाथों की रोटियाँ,

अचार की खुशबू वो आँगन की किलकारियाँ,

बेझिझक आकर दिल का दरवाजा खटखटाया करते हैं।


गाँव की पगडंडी में खेलता वो बचपन,

दोस्तों के संग खिलखिलाता मस्ती का चमन,

मन के आँगन में आकर इंद्रधनुषी रंग बिखेरा करते हैं।


वो सावन का झूला और गाँव का मेला,

वो भीड़-भाड़ और खूब सारा हल्ला-गुल्ला,

आज भी धीरे से कानों में आकर शोर मचाया करते हैं।


वो मिट्टी से बने घरौंदे सजाकर खेलना,

दोस्तों के साथ गुड्डे गुड़ियों का ब्याह रचाना,

आँखों के बंद पटल पर आकर अठखेलियां करते हैं।


वो छप छपाक पानी में उछल कूद करना,

वो रिमझिम बारिश में कागज़ की नाव बनाना,

आज भी उन यादों के छींटें मन को भिगोया करते हैं।


काकी, चाची-चाचा, ताऊ और ताई,

गाँव भर से रिश्तों की वो प्यार से हुई बुनाई,

एहसास बनकर आज भी प्यार से सहलाया करते हैं।


इतने सारे खूबसूरत वो सुनहरे पल,

छोड़ आए थे हम गाँव के आँगन में जो कल,

वो सतरंगी पल अब तो बस यादों में ही ‌बसा करते हैं।


यही यादें तो खज़ाना है इस जीवन का,

एक खूबसूरत, प्यारा सा एहसास है अपनेपन का,

यादों में ही सही गाँव का वो सुकून महसूस तो करते हैं।


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