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संजय असवाल "नूतन"

Abstract Others

4.7  

संजय असवाल "नूतन"

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वो गुमसुम रहने लगी..!

वो गुमसुम रहने लगी..!

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वो चंचल शोख चुलबुली सी 

यहां वहां मंडराती थी,

कभी इठलाती कभी बलखाती

कलियों सी खिल जाती थी।


हवा में उड़ती पतंग जैसे

खुशबू सी बिखर जाती थी,

श्वेत चांदनी शीतल सी

आंखों में बस जाती थी।।


न चुप कभी वो रहती

हिरणी सी चहकती रहती थी,

बागों में मोरनी बन कर

खूब नाचती रहती थी।


कोयल सा गीत सुनाती 

हवा सा बहती रहती थी, 

तितली बनकर आसमान में 

वो बस उड़ती रहती थी।।


थिरकती रहती यहां वहां 

कभी बादलों सा बरस जाती थी,

उसकी हंसी से महके गुलशन

सारा घर भर जाती थी।


वो नदियां जैसे बहती रहती 

घंटियां मंदिरों सी बजती थी,

चिड़िया सी वो ची‌ ची करती

मन सभी का मोह लेती थी।।


कोना कोना उससे ही घर का

जिंदगी का फलसफा कह जाता था,

दर्द कभी जो होता दिल में 

उसे समझ आ जाता था।


पर अब वो गुमसुम सी

खामोश गुड़िया हो गई,

रंगत चेहरे की उड़ गई उसकी

बेजान पत्थर की हो गई।।


सुबह शाम बस काम में उलझी

वो एक मशीन सी हो गई,

न भूख है ना प्यास उसे

बस भीड़ बन कर खो गई।


खुट्ती रहती वो खुद में ही 

बस मारी मारी फिरती है,

दो पल का भी चैन नहीं 

खुद से वो कभी ना लेती है।।


अरमां उसके ख्वाब अधूरे

जब घुट घुट कर वो रोती है,

आंखों में ही ठहरे आंसू 

ना जिक्र किसी से करती है।


चेहरे पर लटें हैं उलझी 

माथे पर सिलवटें रहती हैं, 

वो अब परेशान सी बुझी बुझी

बस गुमसुम गुमसुम रहती है।।


(छोटी बहन नूतन को समर्पित)


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