वक्त के दाँव का शिकार हूँ
वक्त के दाँव का शिकार हूँ
वक्त के दाँव का शिकार हूँ
हरगिर नहीं आदमी बेकार हूँ।
कर न सका खुद को नसीब के काबील
वक्त का मारा , नसीब का बीमार हूँ।
वक्त के इम्तहान का कायल हूँ
वक्त के इम्तहान को हमेशा तैयार हूँ।
जिंदगी मुझे प्यार है, हौसलों से यारी है
डुबता भी नहीं और झेलता मझधार हूँ।
पुरी न होगी जब तक वक्त की आजमाइश
तब तलक जद्दोहद का खिदमतगार हूँ।
मझधार की लहरों पर तैर रहा हूँ मैं
जिस्म से कश्ती हूँ, हाथों से पतवार हूँ।
हौसलों का पस्त होना, होता है खुद की सोच में शामिल
नाउम्मीद भी हो जाता कभी-कभार हूँ।
