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Mahavir Uttranchali

Fantasy

5.0  

Mahavir Uttranchali

Fantasy

विचित्र अनुभूतियाँ

विचित्र अनुभूतियाँ

1 min
246


देख रहा हूँ

कुंठित भाव

संकुचित हृदय

आँखों में अश्रुधार लिए

बैसाखियाँ थामे खड़े हैं

विश्व के समस्त असहाय पत्रकार !


अनुभूतियाँ अपाहिज है !

त्रिशंकू बने हैं शब्द !

पत्रिकाओं के कटे हुए हैं हाथ-पैर !

बुद्धिजीवि घर बैठे मना रहे हैं खैर !


क्या कोई नहीं ?

जो इस भयावह स्थिति

और अंतहीन अन्धकारमय परिस्थिति से

मुक्त करवा पाए समूची मानव जाति को !


जहाँ स्वच्छंद हो कर

विचार सकें समस्त प्राण

जहाँ प्रेम का ही हो

परस्पर अदान-प्रदान

जहाँ एक-दूसरे के भावों को

समझते हो सभी।


जहाँ समूची मानव जाति का

समान हो

जहाँ… जहाँ… जहाँ…

बालपन में सुनी

सारी परी कथाओं का

वास्तविक लोक में

अस्थित्व हो।


जहाँ कला और कलाकार के

पनपने की

समस्त परिस्तिथियाँ हों !


आँख खुली तो पाया

स्वप्नलोक से

यथार्थ के ठोस धरातल पर

आ गिरा हूँ !


सामने हिटलर चीख-चीखकर

भाषण दे रहा है !

कला के पन्ने

और कलाकार के सपने

बिखरे पड़े हैं !


आह !

हृदय विदारक चीख

मेरे होठों से फूट पड़ी !


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