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Rajesh Kumar Verma "mirdul"

Abstract

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Rajesh Kumar Verma "mirdul"

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"वायु का शोर"

"वायु का शोर"

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जल का तो था हाहाकार,अब वायु का है शोर।

 भू पे मानव की कृति बढ़ा रहा विघ्न की ओर।।


 दोहनकर धरा की मचा रहा आधुनिकता का शोर।

 मानव स्वयं तु बढ़ रहा है भीषण प्रलय की ओर।।


 वसुंधरा की भारी तपन इंगित करता है कुछ और।

 नैसर्गिक से हुई छेड़ तो मचेगी तबाही चारों ओर।।


 मनुज अब भी थाम लो जिंदगी की सांसो का डोर।

 मन में भारी पश्चाताप की है भ्रमित हृदय चित चोर।।


 कर प्राकृतिक की संरक्षण, बढ़े हरियाली की ओर।

 मानव तब ही जीवन बचेगा, होगी खुशियां चहु ओर।।


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