उसने इक दीप
उसने इक दीप
उसने इक दीप मुहब्बत का जला रक्खा है
आज भी दिल में मेरा नाम छुपा रक्खा है
मेरे आने की खुशी में वो मुझे कुछ देगी
इस लिए मैं ने भी कुछ घर में छुपा रक्खा है
पूछते है वो मरासिम मैं ने कितने रक्खे
मैं ने दुश्मन को भी यूँ दोस्त बना रक्खा है
तूने ख़ामोश समझ कैसे लिया औरत को
आँख में झाँक ले तूफान उठा रक्खा है
इन ज़माने को यूँ मसरूफ़ मुसलसल होते
आपने ख़ुद को भी मसरूफ़ दिखा रक्खा है।