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Pradeep Singh Chamyal

Romance

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Pradeep Singh Chamyal

Romance

उस रोज़ ना जाने क्या हुआ

उस रोज़ ना जाने क्या हुआ

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फिर एक रोज़ यूँ हुआ

कि उस रोज फिर सुबह नहीं हुई।

रात किवाड़ लगाकर घर रुक गई।

हमने देखा, सूरज आंखे मूंदे सोता रहा।

और आँगन का पीपल रोता रहा।


अंधेरा बाँहे फैलाये खड़ा था,

और उदासी मुस्कराती थी।

कोई था जो दरवाजा पीटता था,

मेरी बेबसी चीखें लगाती थी।


अधखुली खिड़कियों के रास्ते,

किसी और दुनिया में खुलते थे।

मेरी बदकिस्मती के साये,

मेरे साथ चलते थे।


उस रोज़, चिड़ियों ने गाना नहीं गाया।

और ना फूलों ने ख़ुश्बुएँ उतारी।

पहली दफ़ा आईने को रोते देखा,

जब आईने ने सूरतें सँवारी।


उस रोज़, जो होकर भी नहीं था,

हमने उसका मातम मनाया।

उस रोज़, मैं पहली दफ़ा,

नाउम्मीद घर आया।


एक रोज़ वो था कि

उसे देखे से मोहब्बत हो गयी थी,

एक रोज़ ये था कि वो

किसी और कि अमानत हो गयी थी।


उस रोज़, मैं एक फूल नोच आया,

और मंदिर वाली सड़क छोड़ दी।

पन्नों में आड़ी-तिरछी लकीरें उतारी,

और फिर मायूसी में कलम तोड़ दी।


उस रोज़ ना जाने क्या हुआ,

कि फिर सुबह नहीं हुई।


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