उपेक्षित
उपेक्षित
मैं पसरा हूँ नभ में तारों सा ।
या धरा पर तृण प्रसारों सा ।
सोचता अक्सर कहाँ चूक है I
क्यों मुझे पहचान की भूख है I
चलो बेहतर मेरा वजूद तो है ।
मना कभी जश्न खूब तो है ।
पल्लवित हो जग ये प्रमुख है ।
सब मंगल हो यही सुख है I
महफिल में आ बैठा हूं I
महज एक रज जैसा हूँ I
तिलक उनके केशर चन्दन दीप्त मुख है I
तृष्णा उनसे ही उनमें जो मेरे सम्मुख है I
बाँध समा जो तेरे पल्लू में आए ।
ले जाएगा क्या समय के साये ।
अंतर्मन में पुनर्जन्म सम्मुख है I
क्या जीवन मरण यहीं दुःख है ।
