उपेक्षित संघर्ष
उपेक्षित संघर्ष
मिली सफलता जब से,
तब से रोज मैं पूजा जाता हूँ,
जिनको न जानूँ पहचानूँ,
गुरु उनका कहलाता हूँ।
जिसके मैं खुद लायक न हूँ,
ऐसे शब्दों से तौला जाता हूँ,
जाने कितने जाने कैसे कब के,
झूठे झूठे इतिहास बताए जाते हैं।
रात-दिवस वर्षों-युगों के,
उपमान गिनाए जाते हैं,
लक्ष्य जिन्होने मेरा भेदा,
ऐसे मेरे तृणीर के तीरों के,
स्वयं लक्ष्य भी कम लगता,
वो काम गिनाए जाते हैं,
लक्ष्य न कोई भेदा चाहे,
मेरे अभ्यासों का मान रखा,
स्वयं व्यर्थ हो गये वो किन्तु,
मुझको सदा ही सज्ज रखा,
ऐसे मेरे सारे प्यारे बाणों के,
न नाम गिनाए जाते हैं,
चाह सभी की मुझ सा बन,
स्वयं हिमालय पा जायें,
नहीं किसी की इच्छा कि,
मेरे संघर्षों को जान सके।
जो न किसी ने देखा अब तक,
वो रूप मेरा पहचान सके।