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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

Abstract

उम्मीद बरस रही है

उम्मीद बरस रही है

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झरती हुयी रेत की तरह

बरसती हुयी उम्मीद

और पिघलता हुआ

पत्थर से बना 

शब्द बिम्ब

सब कुछ बदल रहा है 

या सब कुछ

अपने मूल रूप में

दिखने को आमादा है।


आदर्श, पाखंड तिरोहित हो रहा है

मनुष्य, मनुष्य बनने पर आमादा है

और ठिठका हुआ है

जीवन के आस पास

चलता हुआ महाभारत

नये पात्र

अपनी भूमिका निर्धारित कर रहे हैं

हथियार फिर हथियार शाला में

पहुंचाए जा रहे हैं


प्रेम मंत्र से

अभिभूत हो रहा है

अस्तित्व

नया प्रेम है हमारा

हमसे

और हम तुम्हारे काम

आ रहे हैं

जेहन में थी तुम्हारे

कल्याण की कामना

और वही,

बरस रही है उम्मीद की तरह।


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