उलझन
उलझन
तुमसे कुछ कह देने और
ना कह देने के डर ने
मुझको बांधे रखा था।
जब कहने की मेरी बारी आती
तब तुम बहुत कुछ कह जाती थी
उम्मीद थी समझ जाओगे
मेरी उलझी हुई जो बातें थी।
जो तुम सर हिला हिलाकर
समझना चाहती थी मेरे
उन दबे हुए जज्बातों को।
हाथ में लेकर हाथों को
जमा कर हर मुलाकातों को।
तुमसे कुछ कह देने और
ना कह देने के डर ने
मुझको बांधे रखा था।
जब तुम बात समझती, मेरे
अनजाने पन पर मुस्कुराती थी
तब साँसे सांस चढाती थी
और बात कंही खो जाती थी।
जो तुम फिर रूठ रूठकर
दामन छुड़ाकर हाथों से मेरे
पलट पलट कर वापस आती थी
मैं तुमको समझाता कुछ था
तुम समझके कुछ और जाती थी I
इसी तरह गुज़रती थी राते
इसी तरह दिन में मुझको सताती थी ।