उलझी सी ज़िन्दगी
उलझी सी ज़िन्दगी
मसरूफ़ सा जहाँ ये सारा
दिलकश सा नज़ारा लगता
हरपल इसका सूफियाना सा लगता
मुस्कुरा के जियो सबकुछ
कि बाक़ी अब कुछ न रहा
ये पलभर की ज़िन्दगी,ये पलभर का जहाँ
गम सब न ज़ाहिर किया,साथी सच्चा जब ये खुद हुआ
खुशियां यू रूठी की,वापस न आए
न मैं बुलातीं, जब वो भूल जाए
ख्वाहिशे कुछ ऐसी ,जो पूरी न लगती
कुछ पूरी ख्वाहिश ,अब भी अधूरी-सी लगती
आदतें कुछ ऐसी बनी की छोड़ी जाए न
पर अब यही आदतें ,कुछ बुरी सी लगतीं
पलभर की ज़िन्दगी में, यूँ मसरूफ़ से हो गए
कि ये ज़िन्दगी भी अनसुलझी-सी एक पहेली लगती।
