उड़ान
उड़ान
मेरे हौसलों को
उड़ान भरता देख
वो हर रोज़ एक
ईंट चढ़ाता गया,
मैं शांत होकर
सब सहती गयी
कुटुम्भ की बाबत
साथ रहती रही;
फिर भी मेरे जज़्बे को
हासिल मेरा मुकाम
देखकर चारदीवारी
वो बढ़ाता गया;
एक बदलाव की
उसमें आस थी
साथ रहने की
बस प्यास थी;
मैं निर्भीक होकर
कुछ कदम
फिर आगे चली
वो हर कदम अपनी
टांग अड़ाता गया;
शायद गलत थी मैं
झूठे प्रेम के मोहपाश में
उसमें परिवर्तन की
गुंजाइश ना थी;
सुबकते एहसासों को
एकांत में पड़े
तड़पता देखकर
हुंकारता था रहता
आदतन गुरूर में
करता था इंतज़ार
मेरे हौसलों की लौ के
मद्धम पड़ने का
बहुत हुआ फिर
मैं ना थी काफिर
क्यों मरना तिलतिलकर
बढ़ गयी प्रगति पथ पर
पंखों में दम भरकर
मुकाम को तलाशकर
हुई लक्ष्य को मुखर
सारी बंदिशें तोड़कर;
बिखरा उसका अहंकार
जब निकली में उड़ान भर
मेरी आज़ादी देखकर
वो लाख बिफरता गया
फिर पल आया बड़ा
वहीँ ठगा सा वो खड़ा
ताकता बस रह गया,
अंगार सा जलता हुआ
हाथ अपने मलता हुआ।