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Rashmi Sahu

Abstract

4.2  

Rashmi Sahu

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उड़ान की चाह

उड़ान की चाह

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190


        

खुले आसमान में जब पंक्षियों को उड़ता देखती हूं

उनके संग मैं भी खुद को उड़ता पाती हूं


यूं तो चार दिवारी में बन्द रहती हूं

पर उनके संग पंख पसार आती हूं


उड़ते हैं मस्त मगन चूमते है पूरा गगन

देख यह नजारा थकते नहीं हैं मेरे नयन


इस उड़ान का अद्भुत यह नजारा है

जिसे खोना मुझको कहां गवारा है


खोई रहती हूं इनकी उड़ानों में

जैसे कोई झूमे किसी गीत के तरानो में


उड़ने की ख्वाहिश लिए ये मन बावला

पंक्षियो के संग ये भी उड़ने को चला


उड़ान इन पंक्षियों का मन को बड़ा भाता है

निर्मल नज़ारे को देख दिल को सुकून सा आता हैं


पिंजरे में बन्द पंक्षी को उड़ान की चाह है

मन के पक्षी की क्यों उलझी ये राह है


मेरा मन का परिंदा उड़ना चाहे

कुछ पल ये भी मस्त मगन होना चाहे



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