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Vikash Kumar

Tragedy Inspirational

5.0  

Vikash Kumar

Tragedy Inspirational

तुमने बाँटा था, तभी तो बँटा था मैं

तुमने बाँटा था, तभी तो बँटा था मैं

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तुमने बाँटा था, तभी तो बँटा था मैं

कभी हिन्दू कभी मुसलमान बना था मैं,

कभी जाती, कभी धर्म,

कभी औरत, कभी मर्द,

कभी गाँव, कभी शहर,

कभी पूरब, कभी पश्चिम ,

कभी गोरा, कभी काला हुआ हूँ मैं,

तुमने बाँटा था, तभी तो बँटा हूँ मैं

कभी हिन्दू कभी मुसलमान हुआ हूँ मैं।


तुमने ही बना दी थी सरहदें

और तय कर दीं थीं कुछ हदें

जिंदगी के इस पार से उस पार न जाने की

उन कसमों उन रिवाजों को न निभाने की

जिनको निभाया था तुमने हर पल

केवल रोका था मुझे और हर उस मानुष को

जो आया था सामने तुम्हारे

तुमसे अपना कुछ हक मांगने।

खींच दीं थी उस पल कुछ लकीरें तुमने

ताकी तुम अपने ही किसी का हक मार सको

और सिद्ध कर सको खुद को महान,

महान उन लोगों से जिनका हक मारकर

महान बन बैठे हो तुम।

औकात दिखाई थी,

उस पल बाँटने की मुझे

तुमने बाँटा था, तभी तो बँटा था मैं

कभी हिन्दू कभी मुसलमान बना था मैं।


कभी स्त्री कभी पुरूष

कभी अबला कभी सबला

क्यों पूजा तुमने मुझे देवी बनाकर

क्या कसूर था मेरा

जब कभी प्यास बढ़ी थी तुम्हारी

संतृप्त हुए थे उस खारे मेरे ही पानी से

मेरे ही आँसुओं से प्यास बुझाई थी तुमने

मुझको ही देवदासी बनाकर,

देव बन बैठे थे तुम

मेरी हर उस आह पर आनंद लिया था तुमने

मैं चिल्लाई थी, चीखी थी

तब तुम्हारे चेहरे का मुखौटा नजर आया था मुझे

पर मैं अबला कुछ न कर पाई थी

देवी भी तो तुमने ही बनाया था मुझे

फिर कैसे यकीन करता कोई

तुम्हारे उस मुखौटे का,जो छिप गया था

मेरे पिता मेरी माता के मददगार के पीछे

मेरे देवदासीपन के पीछे

हाँ तुमने ही बाँटा था

तभी तो बंटी थी मैं, तभी तो छली थी मैं।।


उस ख़ुदा ने उस भगवान ने

आज़ादी दी थी सभी को उड़ने की

सपने सजाने की

वीरानों को मरुधान बनाने की

उसने तो बख्शी थी, गुलाब की पंखुड़ियाँ

और मीठे बेर, उन कंटीली झाड़ियों को भी,

जिनके कांटे ही उनकी नियति थे।

परिंदों को उसने कहाँ रोका था सरहदों से

दुनिया को उसने कब टोका था

हर उस कलाकृति को तराशा था उसने

अपने अंदाज़ में पर कभी बाँटा न था।

सजाया था आसमां को चाँद सितारों से

ताकि स्वछन्द विचरण कर सके हर कोई

उसने तो न बाँटा था किसी का अस्तित्व

तुमने ही केवल बाँटा था

मेरा ज़मीर, मेरी पहचान, मेरे मनुष्यता

सब कुछ बिक गया था जैसे

तुमने ही बाँटा था, तभी तो बँटा था मैं

कभी हिन्दू कभी मुसलमान बना था मैं।


तुमने ही अहसास कराया था,

मुझे मेरे अबलापन का

ताकि हर कोई कभी भी छल सके मुझे

कितने डेरों, कितने मंदिरों, कितनी

मस्जिदों ने छला मुझे।

ताकि अहसास हो सके मुझे मेरे अबलापन का।

शिक्षा के उजाले से वंचित रखा था मुझे

ताकि मुझे मेरे सबलापन का अहसास न हो सके।

ना ही होने दिया गया मुझे मेरे पैरों पे खड़ा

ताकि आंच न आने पाए तुम्हारी मर्दानगी पर।

इज़्ज़त, यश, कीर्ती सब तुमने छुपा दिया था

मेरे शरीर रूपी पिंजरे में

ताकि तुम्हारा हर दुश्मन कर सके पहला वार

मेरी आत्मा पर और रौंद सके मुझे अंदर तक

और बचा रहे तुम्हारा अस्तित्व

क्यों तुम्हारी गाली का हर शब्द था मेरे लिए

ताकि मेरा सम्मान, मेरा आत्मविश्वास

मर सके हर पल, हर दम।।

तुमने ही बाँटा था, तभी तो बँटी थी मैं

और हर पल छली थी मैं।।



मौत का न जाने कौन सा खेल खेल रहे थे तुम

कुदरत की मनुष्यता को न जाने

किस तराजू में तोल रहे थे तुम।

कितने खाने बना दिए थे तुमने

इन आती जाती सांसों के लिए

ताकि घुटता रहे दम कुदरत की कलाकृति का

और जिंदा रह सके तुम्हारी नक्कासी

विशिष्टता सिद्ध करता रहे हर खाना एक दूसरे पर

अहसास दिलाती रहे तुम्हारी सियासत,

हर उस खाने को उसके छोटेपन का,

शायद छोटा बनाया था तुमने उन्हें इसीलिए

ताकि तुम खुद को सिद्ध कर सको बड़ा।।

चुनौती दी थी इसलिए तुमने उस ख़ुदा को

हाँ तुमने बाँटा था, तभी तो बँटा था मैं

कभी हिन्दू कभी मुसलमान बना था मैं।



खुदा ने बनाये थे रंग

इस जहांन को खूबसूरत बनाने के लिए।

अच्छा बुरा या विभेद न कर सका था

उनमें ख़ुदा होकर भी वह

दिन को सफेद, रात को काला बनाया था उसने

इसलिए नहीं कि-

रंगों को अच्छा बुरा कह सके तुम्हारी तरह,

इसलिए कि

आने वाला हर दिन –

रात के आगोश में जाता रहे।

चैन की नींद सो सके वो दिन

अपनी उस रात के आगोश में।

उसके लिए न दिन में फर्क था

न रात में अंतर

शब्द तुम्हीं ने चुने थे

अपनी सुविधा के अनुसार

क्यों दिया था तुमने नाम भयानक

उस काली रात को

क्या कसूर था उस रात का-

उसके कालेपन का

डर तुम्हारे अंदर था,

अपनी भयानकता का नाम दे दिया था

उस बेचारी रात को।

जुगनुओं को तो न रोका था

उस रात ने प्रकाश करने से,

और हाँ उस रात ने ही तो दिया था

दिन को उसके उजालेपन का अहसास।

तुमने बाँटा था, तभी तो बँटा था मैं

कभी हिन्दू कभी मुसलमान बना था मैं।



जिंदगियाँ मौत से बड़ी नहीं होती

या तो खाक होती हैं या राख होती हैं

नाम बदल लेने से जिंदगियों का हस्र नहीं बदलता

मिटना पड़ता है दोनों ही स्थितियों में उसे

ताकि फिर से कोई नई जिंदगी पनप सके

प्रतिस्पर्धा का नहीं कोई मूल मनुष्यता में

तुम किसी को छोटा करके कैसे बड़े हो सकते हो

बांट कर जो छोटा करते हो तुम

यही तुम्हारी सबसे बड़ी भूल है

आओ जोड़कर बड़ा होना सीखे

हिन्दू और मुसलमान से बेहतर मनुष्य होना सीखें।।

महामानव होने की ओर भी एक कदम बढ़ाते हैं,

हम खानों में नहीं, खुली आसमानों में राह बनाते हैं।।




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