तुम्हें क्या बताऊं
तुम्हें क्या बताऊं
तुम्हें क्या बताऊं
यादें बड़ी मस्तानी हुई
सोच में पड़ गए हम,
वो आधी रात को रवानी हुई।
ढूंढ़ती हुई पहुंची,
महबूब के सामने
तब उसने हंस कर कहा,
क्या मुझे पुकारा था आपने
उनके केशों को देखकर
हम ओझल हो गए
चेहरा कुवलय था उनका
हम देखते ही खो गए
तब बीत रही थी आधी रात
सुबह ही होने वाली थी
यादें मेरी ठहर गई उनपर
वो कुछ मुझसे कहने वाली थी
सुकून बहुत मिला उन्हें देखकर
उनके ही आंखो में
बिस्तर से उठने का मन नहीं करता था
मन करता वो चली आए पुनः यादों में।
कितनी अज़ीज थी रात मेरे लिए
डूबते जा रहे हम उन्हीं के ख़यालो में
सपने में भी रुक- रुककर शराब पीते थे प्यालों में।
जब खुली नींद मेरी,
अंगड़ाई से चूर होकर
मन करता था फिर सो जाऊं यारों
अपने दिल में उनकी तस्वीर छिपाकर।
ऐसे ही गुज़रे थे उस रात की दो पल
बस दिल ही दिल में होता था हलचल।

