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डॉ अश्विनी शुक्ल

Romance

2.0  

डॉ अश्विनी शुक्ल

Romance

तुम्हें भूलना मुश्किल फिर भी

तुम्हें भूलना मुश्किल फिर भी

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तुम्हे भूलना मुश्किल फिर भी

तुम्हें भुलाना चाह रहा हूँ।


चांदी जैसी रातें अपनी सोने जैसे दिवस हमारे।

मन कुरंग सा भरे कुलाचें , पंछी सा मन पंख पसारे।

तेरे अलकों की छाया में जो भी दिवस बिताये होंगे।

उन यादों की कुटिल छांव से दूर निकलना चाह रहा हूँ।

तुम्हें भुलाना चाह रहा हूँ।


कितने इन्द्रधनुष को लेकर मैने सारे रंग चुराए।

चन्दा से शीतलता लाकर आकुल मन का ताप मिटाये।

तेरी मधुर कल्पनाओं में मैंने कितने गीत रचे हैं।

अक्षर अक्षर इन गीतों के आज मिटाना चाह रहा हूँ।

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p>तुन्हें भुलाना चाह रहा हूँ।


खुद जलकर प्रकाश बन तुमको राह दिखाता रहा वर्षभर

जलन हमारे हिस्से आई कालिख ढोता रहा उम्रभर।

सोचा नयन तुम्हारे आखिर काजल से श्रृंगार करेंगें।

मनमंजूषा से काजल की पंक्ति मिटाना चाह रहा हूँ

तुम्हें भुलाना चाह रहा हूँ।


तुम सरिता थी मैं मरुथल था सोचा था मरूद्यान बनूँगा

 सोचा था सर्वस्व समर्पण, एक नया प्रतिमान बनूंगा।

खुद अपना अस्तित्व मिटाकर आया था मैं द्वार तुम्हारे

आज उन्हीं यादों से थककर दूर निकलना चाह रहा हूँ।

तुम्हें भुलाना चाह रहा हूँ।


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