तुम्हारा प्रेम हूँ मैं
तुम्हारा प्रेम हूँ मैं
चलु कदम में रुक तुम्हारे
बहक जाउँ अटकलियों अदाओं में तुम्हारे
एक ही टहनी पे लटका आम हूँ मैं
कब तलक दूर रहूँ चाहत के अद्वितीय भूख से तुम्हारे
हँस लूँ पनाह में तुम्हारे
ज़रा सौ लूँ कोपल बांहों में तुम्हारे
तुमसे सृजित तुम्हारा ही तो अंस हूँ
कब तक फासलों में लिपटा विमुक्त रहु आवरण से तुम्हारे
दृस्टि सा नैनो में तुम्हारे
सुकूँ प्राप्त करूँ तिलिस्मी सा गोद में तुम्हारे
तुम्हारा ही तो बीज रोपित वो आंशिक प्रेम हूँ
तुम्हारे सजल ओठ और अनुरागी ह्र्दय से
अछुता कब तलक रह इस वसुंधरा पे सार्थक कहलाऊंगा
ये स्याही ये जीवित कविता कहती यथार्थ सारी
हमदोनों है पूर्ण एकदूसरे के साथ ये आकाश ये कायनात
साक्ष्य में रचते इतिहास की गाथा हमारी।

