तुम क्या चाहते हो?
तुम क्या चाहते हो?
तुम क्या चाहते हो?
चलो आज कह ही दो,
जो इतने दिन से,
इतने महीनों से,
बरसों से, मेरे जन्म से,
या उसके भी पहले से,
मुझे बताना चाहते हो।
हूं मैं बस एक इंसां,
क्या इतना काफी नहीं?
तुम्हारी जिज्ञासा की पुष्टि को,
तुम्हारी समीक्षा की तुष्टि को,
तुम्हारी अभिनत दृष्टि को,
जो तुम मेरे बारे में
अभी भी और जानना चाहते हो।
जात-पात, धर्म-कर्म,
देश-गांव, मां-बाप,
पुरुष-स्त्री, रंग-छाप,
हूं मैं अमीर या गरीब,
हूं काला या गोरा,
ये सब पूछ कर,
क्या मेरी नई पहचान बनाना चाहते हो?
कैसे बदल जाएगी मेरी पहचान?
क्या मेरी पहचान मुझसे नहीं?
क्या मुझ में वैसा कुछ भी नहीं?
जो बन सके मेरी पहचान,
दे सके मुझ को सम्मान,
जिस पर जा सके तुम्हारा ध्यान,
हो सके मेरा अपना नाम,
पेट चलाने को थोड़ा काम,
बस इतना ही तो चाहता हूं,
क्यों तुम मुझे वह देना नहीं चाहते हो?
क्यों बांटकर इन खांचों में,
बांध खोखले रिवाजों में,
रंगीन कांचों के,
अनम्य सांचों में,
क्यों अपने मनमाफिक ढालना चाहते हो?
तुम अपने वह रंग कलुषित,
तुम्हारी वह वायु दूषित,
करने को मुझ को धूसरित,
वो सारी तामसिक धूलि,
क्यों मेरी आंखों में डालना चाहते हो?
मैं इंसा ही ठीक हूं,
मैं बेरंग ठीक हूं,
मैं ठीक हूं बदगुमान,
हूं मैं थोड़ा बदजुबान,
तो क्यों मुझे अपना सा बनाना चाहते हो?
कठपुतली की तरह,
अपनी उंगलियों पर बंधे धागों से,
अपने हाथों की हरकत से,
क्यों मुझको नचाना चाहते हो?
कर लो तुम कोशिश कितनी भी,
होगी हर कोशिश नाकाम,
नहीं मुझे चाव कोई,
नहीं मेरा भाव कोई,
नहीं सीखता मैं अब ढंग कोई,
नहीं चढ़ता अब मुझ पे रंग कोई,
बन गया हूं बेनाम,
फिर क्यों अपनी बात सुनाना चाहते हो?
क्या तुम मुझे अब डराना चाहते हो?
लोक लाज के नाम पर,
झूठे समाज के नाम पर,
ढोंग पाखंड के नाम पर,
हुक्का पानी बंद दंड के नाम पर,
क्या तुम अब कोई बहाना चाहते हो?
चलो ये तो बता ही दो,
मेरे प्रश्न तुम क्यों टालना चाहते हो?
मैं हूं बस एक इंसां,
क्यों तुम यह मानना नहीं चाहते हो?
आखिर! तुम क्या चाहते हो?