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Geeta Upadhyay

Abstract

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Geeta Upadhyay

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ठोकरें खाता है

ठोकरें खाता है

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क्यों आंखों में समुंदर लिए फिर रहा है

छलक ना जाए ये कहीं पलके बंद करने से भी डर रहा है

इतनी मोहब्बत भी अच्छी 

नहीं है अश्कों से

बहा के कुछ आराम मिलता है सीने में

चाहकर भी नहीं मिलता कभी

मिलकर भी खो जाता है

इस मायाजाल में फंसकर

इंसा क्या से क्या हो जाता है

मंजिल की तलाश में 

दर-दर की 

ठोकरें खाता है




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