तंत्र में डूबा गण तंत्र
तंत्र में डूबा गण तंत्र
क्या, जन जन का है गणतंत्र,
या तंत्र में उलझा हुआ गणतंत्र ?
कहने को समान सबके अधिकार,
समानता का है यह पोषक।
कहने को सच्चाई की आवाज़ है,
सबका कहलाता है यह रक्षक।
कहने को भारत का संविधान है,
पर विस्मृत हो गया देश का विधान।
जो जैसे चाहे तोड़ मरोड़ देता,
क्या यही है हमारा संविधान ?
कहीं कुछ बिखर रहा है,
तंत्र से जन का नाता टूट रहा है।
कहने को तो जनता की सरकार,
पाँच वर्षों में पड़ती है दरकार।
फिर जन से न रहता नाता,
जन गण पर तंत्र करता अत्य
ाचार।
बिखर गया जन गण का अंतर्मन,
मन में जन जन के हो रही घुटन।
व्यथित कर रहा मुझे ये सवाल,
क्या मैं ही हूँ भारत का गणतंत्र?
आहत है आज मेरी दास्तान,
खो गया आज मेरा परिचय पत्र।
गण और तंत्र की कशमकश में,
गला घुट दम निकलता मेरा।
गण का तंत्र नहीं, तंत्र ही तंत्र है,
यूँ कत्लेआम हो रहा है मेरा।
कैसे निकलूँ इस भंवर जाल से,
कैसे लौटाऊँ मैं मेरी अस्मिता ?
कुछ ऐसा कर लूँ प्रयोजन,
कि हो फिर तंत्र में गण की पात्रता।