तमाशबीन
तमाशबीन
तब, मैं एक तमाशबीन था,
क़दम अनायास ही,
रुकते थे मेरे, चलते चलते,
किसी मदारी को देख।
फिर मैं घंटों देखता रहता,
बंदर-भालू का खेल,
नट-नटी का खेल।
खेल ख़त्म होने पर
पुलकित-मन,
आगे बढ़ जाता,
ढूँढने कोई नया खेल।
बारिश मैं कभी,
बैठ जाता मैं,
किसी पोखर किनारे,
मेंढकों को फुदकते-बिदकते
देखता रहता घंटों।
कभी दूर तक पीछा करता
भवरों और टिड्डों का,
जिन्हें आता था बस
गुनगुनाना-भिनभिनाना।
शाम ढलते किसी
जल-धार में हाथ-पैर धो,
लौट आता था घर।
रात के आग़ोश में,
बस सुबह का
रहता था इंतज़ार।
तमाशबीनी में दिन,
कैसे फुर्र से उड़ जाता था,
पता ही न चलता था।
टिड्डों तितलियों
भवरों का,
पीछा करने में ही,
ज़िंदगी का सार
समाया था जैसे।
जेठ की गरमी जब,
खींच देती थी,
लक्ष्मण रेखा
घर के चारों और,
तब तमाशबीनी भी
सिमट जाती थी,
सड़क की और
खुली खिड़की पर।
पंछी, पेड़, ढोर
और इंसान का,
धूप-छांव का खेल
देखते-देखते,
दोपहर का
पता ही न चलता था ।
लू के थपेड़ों से विचलित,
तन-मन के लिए,
सिर्फ एक गिलास ठण्डा,
घड़े का पानी
होता था काफी ।
तमाशबीनी के दिन थे
जाड़ा, पतझड़,
बसंत,गरमी, बरखा,
ये मौसम नहीं होते थे,
होते थे ये अलग-अलग
तरह के,
तमाशों के दौर।
आँधी, तूफ़ान,
अंधड़, ख़ुशी, गमी में भी,
बस एक तमाशा
ढूँढता रहता था,
मेरे अंदर का तमाशबीन।
मनुष्य जन्मजात
तमाशबीन है !
तभी तो,
तमाशों की तलाश में,
कोई घूम रहा है देश,
कोई घूम रहा विदेश,
कोई चढ़ रहा है पहाड़,
कोई घूम रहा रेगिस्तान,
कोई बैठा है सज़ा के महफ़िल,
कोई बैठा लगा के मज़लिस।
अब, भले ही हुजूम लोगों का,
दिखता नहीं सड़कों पर,
मदारी और नट-नटी को घेरे,
पर तमाशों का,
अब भी उतना ही भूका हूँ मैं
बच्चों के पसंद के तमाशे,
अलग हैं बड़ों से,
बड़ों के बूढ़ों से।
औरतों की पसंद के तमाशे,
अलग हैं मर्दों से,
मर्दों के किन्नरों से।
प्रजा की पसंद के तमाशे,
अलग है राजाओं से,
राजाओं से महाराजाओं से।
हवा, पानी, भोजन की तरह
तमाशबीनी भी,
ज़रूरी है जीने के लिए,
तमाशबीनी मेरा अधिकार है !
इसे कोई नहीं छीन सकता,
शिक्षा का अधिकार है जैसे,
तमाशबीनी का अधिकार भी,
मिलना चाहिए वैसे।
बड़ों को, बूढ़ों को,
बच्चों को,
सभी को।