STORYMIRROR

Sandeep Gupta

Others

3  

Sandeep Gupta

Others

आख़िर कब तक

आख़िर कब तक

1 min
233

नदी चुप थी,

चंचल मन थी।

सोचा मैंने,

बाँध दूँ उसको !


उसे, बाँध दिया मैंने !


पर्वत चुप था,

अडिग, अचल था।

सोचा मैंने,

चीर दूँ सीना !


उसे, चीर दिया मैंने !


सागर चुप था,

अनंत, अथाह।

सोचा मैंने,

क्या बिगड़ेगा, 

डाल दूँ, कचरा जो थोड़ा !


उसे दूषित किया मैंने !


धरती चुप थी,

धीर धरे थी।

सोचा मैंने,

थोड़ा ले लूँ !


उसे, लूट लिया मैंने !


जंगल बड़ा था,

हरा भरा था ।

सोचा मैने,

थोड़ा ले लूँ !


उसे काट दिया मैंने।


नदी को बांधा।

पर्वत को चीरा।

सागर दूषित किया।

धरती को लूटा।

जंगल को काटा।

 

बरखा रूठी,

धारा सूखी,

धरती कांपी,

पर्वत कांपा।


दूषित जल,

दूषित वायु,

असमय बारिश,

असमय शीत।


ताप चढ़ा,

कहीं ताप गिरा,

प्रकोप सूखे का,

कहीं क़हर बाढ़ का।


नदी है चुप।

पर्वत है चुप।

सागर है चुप।

धरती है चुप।

जंगल है चुप।


मौन धरे सब !

धीर धरे सब !

आख़िर कब तक ।।


Rate this content
Log in