तिमिर
तिमिर
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शून्य आकाश सा तिमिर दे गया,
वो मेरी देहरी का दीया ले गया।
मन अंधेरे- अंधेरे भटकता रहा,
वो नहीं जानता कि क्या ले गया।।
सोचा था मुझ को समझ लेगा वो,
प्रेम दीपों को देहरी पर धर देगा वो।
मौन आभा, मुखरता से घायल हुई
गेह से नेह का वो स्नेह ले गया।।
शून्य आकाश सा..
वेदना की व्यथा भाव में घुल गई,
प्रणय की प्रथा आँख से धुल गई।
दीपमाला तो जलती रही रात भर,
वो मावस की काली छटा दे गया।
शून्य आकाश सा....
रूठ कर कोई भी निखरता नहीं ,
टूटकर मन का कोना बिखरता वहीं।
गीत, उल्लास, ख़ुशियाँ वहां भी न थीं,
वो जहां रोशनी का मकां ले गया।।
शून्य आकाश सा..