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Satish Chandra Pandey

Abstract

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Satish Chandra Pandey

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था तो वह इंसान ही

था तो वह इंसान ही

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ठंड थी खूब

पहाड़ों की ठंड,

पानी मे कंकड़ जम जाते हैं

पानी के नल तक फट जाते हैं,


वो बाज़ार में भटकने वाला शराबी

बेचैन था, जुगाड़ में था

कुछ पीने को मिले तो

रात कटे, किसी दुकान के आगे सोकर,

था तो वो इंसान ही,


लेकिन शराब की लत से

घरबार सब छूट गया था,

वो अकेला रह गया था,

जानवरों की तरह बाज़ार का ही हो गया था।


हाथ फैलाकर

आने जाने वालों के आगे रोया

पेट की खातिर उसने मांगा,

पीने लायक मिल गया

पी ली, खाने को बचा नहीं।


पड़ा रहा खुले में

रात भर, कंकड़ सा जम गया,

सुबह तक पत्थर हो गया।


मनुष्य था, जानवर सा हो गया था,

लेकिन जानवरों सी न खाल थी

न शरीर में बाल थे,


ठंड कहाँ सहन कर पाता,

उसे कौन संभाल पाता,

बेचारा चल बसा था।


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