तड़पती होगी कहीं
तड़पती होगी कहीं
एक हूक उठती है,दिल में
फिर से उसे सुनने के लिए,
लरजती कभी मनौव्वल में,
जानी पहचानी सी आवाज
टटोल रही अब गुमनामी में,
साया हो करती थी आगाज।
पक्ष लेती मेरा,हर नादानी में,
अब स्तब्ध हो गया मेरा घर,
निशब्दता छा गई, आंगन में,
आतुर होती थी, वह आवाज़
किलकारी की झलक पाने में,
जाने कहां खो गयी है , वो मां।
तड़पती होगी कहीं, तडपन में,
मेरे रोने पे रोते होंगे पा अपने,
छाते आसमां सा मेरे जेहन में,
समाते थे ज़र्रे ज़र्रे में ,धरा पर,
जोर से हुंकार भरते हैं हवा में,
जो कमजोर होते हम साहस से।
