ताकि बची रहे प्रकृति
ताकि बची रहे प्रकृति


बढ़ता जा रहा है, जब से,
कथित 'विकास' नामक सूचकांक,
बस, तब से ही, कहीं
घटती जा रही है...
'वसुंधरा' के चेहरे की रौनक।
मिट्टी की सौंधी खुशबू ,अब नहीं आती।
लहलहाती धान की बालियों को,
ढाप रखा है,
कल - कारखानों की चिमनी से उगलते,
जहरीले धुएं ने।
मीठा शरबती स्वाद अब रहा कहां ?
कहीं दूर हिमालय की गोद में
अब , नहीं करती अठखेलियां, नदियां भी..।
ग्लोबल वार्मिंग का असर छीन रहा है,
उनका चंचल बचपन।
अब नदियां धीर - गंभीर नहीं,
विध्वंशकारी रूप ले उतरती हैं,मैदानों में,
और अब नदियों के किनारे की सभ्यता..
अतीत की बात है।
सघन घने जंगल..अब किताबों की बातें हैं।
मानव, सब कुछ दोहन कर लेना चाहता है,
नहीं चाहता उगाना,
एक बीज, अंकुरण को,
भावी पीढ़ी को हस्तांतरण के नाम पर भी।
बहुत हुआ...अब शुरुआत हमें करनी ही होगी।
ताकि बची रहे प्रकृति,
खिलखिलाता सा रहे पर्यावरण,
और इसी कारण...
बची रहे..मानव सभ्यता भी।
हां, बचाना होगा हमें,
हमारे पर्यावरण को....
कि कल कहीं
बहुत देर न हो जाए।
हम विवश,किकर्तव्यविमूढ़ हो
देखते रह जाएं,
प्रकृति की विध्वंशलीला।