स्वयं के भाग्य विधाता
स्वयं के भाग्य विधाता
परमपिता से हम सबने, अनमोल जीवन पाया
भाग्यशाली वो कहलाए, जिसे समझ ये आया
कलम भाग्य की परमात्मा, हम सबको थमाता
किंतु सबको अपना, भाग्य लिखना नहीं आता
सम्पूर्ण अंगों सहित जब, स्वस्थ शरीर है पाया
अपना भाग्य लिखना, फिर क्यों हमें ना आया
उम्मीद करते रहते, कोई सहयोग हमें कर जाए
हमारा भाग्य लिखने, कोई और कलम चलाए
एक यही ग़लती, जो कोई जीवन में अपनाता
उसका भाग्य सदा के लिए, उससे रूठ जाता
मार हथौड़ों की खाकर, सोना जेवर बन जाता
मोल उतना बढ़े जितना, सुन्दर वो गढ़ा जाता
श्रेष्ठ कर्मों का पुरुषार्थी, स्वयं को तुम बनाओ
रेखा अपने भाग्य की, स्वयं ही खींचते जाओ
कर्मयोगी बनकर जब तुम, कर्म करते जाओगे
श्रेष्ठ भाग्य को तुम, द्वार पर उपस्थित पाओगे।
