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Dr Manisha Sharma

Abstract

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Dr Manisha Sharma

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सवेरा

सवेरा

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बरसों पहले वाली वो अल्हड़ सी लड़की

मिली अचानक किसी मोड़ पर आज खड़ी

वही नैन थे वही नक्श थे

वही चाल थी वही ढाल थी


पर कुछ था जो छूटा सा था

पर कुछ था जो टूटा सा था

ना थी वो आंखों की मस्ती

 चञ्चल शोख अदा की बस्ती


 चेहरे पर वो नूर नहीं था

इठलाता सा गुरुर नहीं था

अपनों संग पहले जो इतराती थी

कभी रूठती और कभी मनाती थी


नखरे सौ सौ करके भी ना थकती थी

पर मुझ बिन एक पल भी जी ना सकती थी

कभी धमकाती छोड़ अगर तुम जाओगे

देखो मुझको भी ना जिन्दा पाओगे


बच्चों सी वो कभी मचलती

रोते रोते आंखे मलती

कभी नाचती कभी नचाती

कितने ही वो रूप दिखाती


हंसती थी तो कलकल झरना बहता था

वो मुझमें और मैं उसमें ही रहता था

आज मिली तो सूखे रेगिस्तान सी

भूली हुई अपनी असली पहचान सी


कुदरत ने जिन रंगों से सजाया था

अब वो इंद्रदनुष नज़र नहीं आया था

शब्द मुखर थे पर भीतर थी खामोशी

बिना ज़ुर्म ज्यों सजरही निर्दोषी


बीती रात के बाद दिन आता ही है

भूल को भूल फिर सवेरा छाता ही है।


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