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Amit Kumar

Abstract

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Amit Kumar

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स्वाहा

स्वाहा

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अख़बार में दंगे देखकर

सोशल साइट्स पर पंगे देखकर

क्यों सब नंगे हो रहे है

सब कुछ तो आपके पास है


आशा है विचार है

अभिव्यक्ति है

शक्ति है सामर्थ्य आदि है

फिर भी क्यों

भिखमंगे हो रहे हैं


कबीर के दोहों पर

दुहाई देते है मीरा की

जायसी के पद्मावत पर

बात करते हैं तुलसी की


रामचरित मानस की

कृष्ण की मुरली पर

जब छिड़ती है 

ग़ज़लें मीर की

मन्दिर की घण्टियों में


जब दुआ मिलती है शीर की

राम के घर में

जब दावत होती है रहीम की

तो कहां से आती आपमें

यह बर्गलाई हुई 


वक़्ती उबालें ज़मीर की

तुम कुत्ते हो या सांप हो

या फिर चालाक लोमड़ी

या कोई मूर्ख भेड़िया


क्योंकि इंसान तो तुम

हो नही सकते

दिखना अलग बात है

और होना अलग बात

बिच्छू के कांटे का भी तोड़ है


तोड़ है हर ज़हर का

लेकिन तुम्हारे कांटे का

कोई तोड़ नही 

और इसका तुम्हारा यह ज़हर है


आटे-बाटे का

निगल जाएगा यह तुम्हें भी

इसमें सब स्वाहा हो जाएगा

जो बेच रहे हो तुम

नफ़रत और स्वार्थ का लहू

वो स्वयं को स्वाहा कर जायेगा।


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