सूखा दरख़्त
सूखा दरख़्त
न जाने जिन्दा था, कि
बस मर घट पर पड़ा था।
सूखा दरख़्त सूनसान खड़ा था।
कड़ी सतहो पर, गहरी दरारें थीं।
जैसे जंजीरों ने उसे जकड़ा था।
मौसम की इतनी मार खा चुका था वो,
इक इक इंच पर घाव ही घाव जड़ा था।
चढ़ जाता वह भेट, अग्नि की चिताओ में।
पर कहीं से एक कोने में, उस पर एक कोंपल फूट पड़ा था।
जिंदगी की एक नई आस खिल गई,
सूखा दरख़्त, अब मौत से लड़ पडा था।
सूखा दरख़्त सूनसान खड़ा था।