सुन सखी
सुन सखी
सुन सखी
तुम क्या क्या
कर जाती हो प्रकृति की हर कृति में
तुम किस तरह घुल जाती हो
बातों बातों में ही कैसे
सुख दुःख सारे कह जाती हो
सुन सखी
घास के मैदान में
बीनते हैं जंगली फूल
चल हरे कालीन वाले
पहाड़ों पर
सरपट फिसलते हैं
बर्फ के पिघले झरने में
अंजुली से फुहार उड़ाते हैं
सुन सखी
चल ज़रा कुछ दूर और
क्षितिज के उस छोर तक
स्वर्ण सा आवरण
इन बादलों से लेकर
सतरंगी शाम को जी लें
चल ओट में जाते
सूरज से चलते चलते
थोड़े सुख दुःख के
किस्से बांटकर
अपने घर को हम भी
विदा हो लें
सुन सखी
सूरज भी डूबने लगा
पीड़ा भी छटने लगी
चल घर लौट चले कि
प्रकृति भी अब सोने लगी
चल कि फिर आएंगे कल
फिर से नए सवेरे के साथ
चलेंगे एक नए उल्लास
या किसी द्वन्द की ओर।