सुलगतें जिस्म
सुलगतें जिस्म
सुलगते जिस्मों को हवा ना दो,
खाख़ हो जायेंगी कोशिशें।
न वो हमें देखते हैं, न हम उन्हें,
नज़र वो अपनी थामे हैं, हम इन्हें
कुछ कहने की चाहत न उन्हें हैं, न हमें
वो बहाने ढूढ़तें हैं नज़दीक रहने के
हम दूर जाने से कतराते हैं।
नज़र बचाकर जो देखा उन्हें,
तो कमबख्त़ पकड़े गये।
मानों टुक-टुकी लगाए बैठे थे,
वो सज़ाए-इश्क देने को।
बेचैनियों की लहरें हैं, के छौर नहीं,
बदन को थामें हैं, पर दिल पर कोई जो़र नहीं,
वो कुछ इस हरकत़ में है,
के आशिकी उनकी फ़ितरत में है।
रोक लो यह़ी इन तुफ़ानों को,
ये हवाओं के रुख़ से अलग हैं,
दीवारें चिनवा दो, गैर हैं एहसास,
पास होकर भी दूर कितनें,
और दूर होकर भी पास।
सुलगते जिस्म़ों को न हवा दो,
खाख़ हो जायेगा ज़माने का कानून,
राख़ हो जायेंगे नियम सभी।
ढ़ेर हो जायेंगी आबरू उनकी
फ़ना आशिकी को कर दो,
बेहतर होगा जो जिस्म न मिलें,
ये एक जैसे हैं।

