सुकून
सुकून
चलूं कि अब
शाम होती है,
हल्की सी आवाज़ भी
अब जिस्म पर
उधार होती है।
तिलिस्म सी रही
है हर मौसम
झलक जिंदगी की,
यहां बसर भी किस की
उम्र पूरी होती है।
धुआँ तब भी उठा था
अब भी उठेगा,
जानते हो
लकड़ियां जब भी
सुलगती हैं
रूहें सुकून से सोती है।