सुबह का भूला
सुबह का भूला
सुबह का भूला यदि साँझ को लौट घर आये तो उसे भूला नहीं कहते
संघर्षों से भरी ज़िन्दगी में बेबस-लाचार इंसान बहुत कुछ हैं सहते
किंतु समय होते हुए किसी से कुछ भी नहीं कहते तथा स्वयं ही तड़पते
तब परेशान हालात में एकाकी बन कर घर से दूर चले जाने का निर्णय लेते
अपनों से ही बहुत दूर निकल जाने का था मेरे भीतर जुनून
सोचा था कि इन सब से अलग रह कर मिल जाएगा सुकुन
जीवन में मिलने वाले हर रिश्ते से भरने लगे थे मुझ में दुर्गुण
अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का कर बैठा मैं अपशकुन
अपनों को ही यातनाएं देकर न जाने मैं किस होड़ में लगा था
अपने से जुड़े रिश्तों को तोड़ न जाने मैं किस जोड़ में लगा था
आज पहली बार मेरी बुद्धि ने मुझे ये कैसा मोड़ दिखाया था
एक बुरे सपने के समान भूल कर मैं सुबह का भूला
आज सदा के लिए अपनों में फिर से वापिस लौट आया था।