स्त्री
स्त्री
एक कोरा कागज नहीं
अपितु पूरी किताब है ये
जो जीवन के आखिरी सांस तक
खुद को जीती रहती है
भलें दूसरें इनकों पढ़ ना पाए
पर खुद को पढ़ती रहती है।
कभी छली जाती है
कभी बिखर जाती है
कभी सशंकित रहती है
पर इसकें दिल के अंदर
एक मासूम सी चिड़िया रहती है।
कभी माॅं ,बहन और बेटी बनती
कभी पत्नी प्रेमिका का रूप वो धरती
हर रिश्तें में प्यार बन बरसती
हर रूप में वों खरी उतरती
इसकें दिल में भी टीस सी उठती
पर कुछ साझा कर नहीं पाती
वह सबका भरोसा है जीतती
पर खुद को भरोसा दे नहीं पाती है
अपमान करें गर कोई तो
ये काली बन जाती है
जिद पर आ जाए अगर
तों सावित्री बन जाती है
कोई जानना चाहें गर उसकें मन की
मन की परतों को वो खोल देती है
जो कद्र ना करें उसकी
बातें कहाॅं वह सुनती है
जिंदगी के हर दौर में
वों अग्नि परीक्षा देती है
फिर भी हर रुप में
वो प्रबल होती है
शिला सी अडिग दिखती है
कभी टूटती कभी बिखरती है
कभी मोम सी पिघलती है
फिर भी
मुस्कान कायम रखती है
थोड़ा खुद के मन को समझाती
थोड़ी तसल्ली देती है
गम से नम हुए पलकों कों
अपनें ऑंसुओं से पोंछ लेती है
अपनें ऑंसुओं को छुपाकर
पुनः मुस्कुराहट ओढ़ लेती है
पूरा समन्दर भलें ना बन पाए
पर समन्दर की एक बूंद बन
समन्दर में समाना चाहती है
अपनें व्यवहार से वों अपना
अस्तित्व बनाना चाहती है
दुनिया चाहें इसें हराना
हार कहाॅं मान पाती है
अपनों के आगे ही तो
वो बेबस हो जाती है
अपनी भावनाओं का गला घोंटती
कभी रोकर कभी रूठकर
मुस्कुराकर जवाब देती है
अपनें में वों तों इस जहां का
सबकुछ समेट लेती है
वों प्रेम और संवेदना है
वो आस्था और विश्वास है
जिसमें सबकी आस है
वो उष्मा और उर्जा है
चलती फिरती कल-पुर्जा है
प्रकृति और पृथ्वी सी है
जिसें सबकुछ देना आता है
जीवन भर झेलती विपदा
पर आंचल में समेटती प्यार सदा
यह तो सतत् संघर्ष की गाथा है
जिसमें सबकुछ निभाना आता है
वह सबकी धुरी है
फिर भी आज अधूरी है।