स्त्री
स्त्री
एक स्त्री
समाज के क्रूर पिंजरे में कैदी,
सपनों से दूर,
उम्र के हर पड़ाव पर
एक स्त्री।
मर्द का गुलाम
मर्द, उच्चतम मर्द, मर्द,
जो मानवता को भूल जाता है,
मर्दानगी दिखाने के लिए मर्द।
अत्याचार की शिकार।
एक स्त्री।
चूल्हा चौका बर्तन कपड़ा,
यही उसकी पहचान है,
आधुनिकता उनके लिए,
एक अनुपलब्धता की तरह है
एक स्त्री।
पेशा हासिल करना एक अभिशाप है,
घर का काम ही उनका काम है।
उनका जन्म परिवार के बुरे कामों के लिए
एक वापसी की तरह है।
उस स्त्री पे क्या बीतती होगी कभी सोचा है?
आज समझना सोचना दूसरों की सोच बदलना।
क्योंकि आज स्त्री के सपनों को उड़ान देनी है,
आधुनिकता की पहचान देनी है।