स्त्री (मन की व्यथा)
स्त्री (मन की व्यथा)
एक इल्तज़ा है मेरी कुबूल करना।
तुम्हारे घर में एक छोटा सा कोना चाहती हूँ, वो मेरा रखना
जहाँ में सुकून से बैठ कर सपने सजा सकूं ।
जहाँ में जब चाहूँ तुम्हारा हाथ थाम सकूं।
जहाँ मुझपे कोई संस्कारों की तोहमत ना लगा सके।
जहाँ मेरा मन मेरी मर्जी की अवेलहना ना कर सके।
ऐसा कोना तुम्हारे आशियाने में खाली रखना।
वो आशियाना छोड़ कर आई हूँ, जहाँ का हर कोना मेरा था।
जहाँ गलतियों की गुंजाइशे भी थी, और अल्हड़ बेपरवाईया भी थी।
संभल सम्भल के एक एक कदम नही रखा मैंने।
थोड़ी थोड़ी लापरवाहियां भी थी।
ना रीति रिवाजों की जुस्तजू थी, ना संस्कारो की बेड़िया थी।
ना शब्दों को तोल मोल के बोला मैंने, ना परवाह की किसी का दिल दुखाने की।
यहाँ का आलम कुछ और है।
हर कदम पर मेरे लिहाज़ का बोलबाला है।
किसको क्या बोलू, क्या नही, इस असमंजस में समय निकाला है।
शायद मेरी लापरवाहियों को कोई जगह ना मिले यहाँ
इसीलिए खुद को , ना चाहते हुए भी कितने ही साँचो में ढाला है मैंने।
बस तुमसे उम्मीदों की आस लगाई हूँ।
उन उम्मीदों को मेरी जगाए रखना,
एक ऐसा छोटा सा कोना चाहती हूँ तुम्हारे घर में, बस उसे सिर्फ मेरे लिए
सजाए रखना।
हाँ अगर दिल दुःखेगा मेरा तुम्हे ही आकर बताऊँगी।
पता है तुम बेटे को इस घर के,पर पति भी हो मेरे ये बार बार याद दिलाऊंगी।
मैं ये नही कहती कि मेरे हर कदम में साथ देना,
पर जहाँ जरूरत हो मुझे वहाँ ना न कहना।
मेरी निगाहे तुम्हे हर वक़्त ढूंढती रहेगी।
हो सकता है ये लब्ज सिल जाए कभी।
पर ये आँखे हर वक़्त कुछ ना कुछ बोलती रहेंगी।
तुम्हारे दिल के कोने में एक कोना हमेशा तालशुगीं।
एक इल्तज़ा है वो कोना बनाये रखना।
तुम्हारे घर मे एक छोटा सा कोना चाहती हूँ उसे बनाये रखना।
हमें भी आशियाने में एक नन्हा फूल खिलाना है।
जाने कितने ही सपने सजाने है, जाने कितनी ही ख्वाहिशो को जगाना है।
हर वक़्त तुम्हारे साथ कि जरूरत होगी मुझे।
एक इल्तज़ा है तुमसे उस साथ को बनाये रखना।
ये आशियाना तुम्हारा नही ,
टूट कर बिखर जाऊँगी जो कभी इन शब्दों से रूबरू हुई
नही चाहती मैं इस महल की बुनियादें।
बस एक छोटा सा कोना ,जो सिर्फ मेरा हो बस वही तक है मेरे इरादे।
मेरी इस ख्वाहिश को बचा के रखना।
तुम्हारे घर मे एक छोटा सा कोना चाहती हूँ उसे बनाये रखना।