स्त्री है वो
स्त्री है वो
जलती है वो
हर पल आज भी
जलते हैँ उसके
अरमाँ हर पल
धुआँ होती हैँ
उसकी चाहतेँ
उसके पैदा होते ही
छिन जाती है चेहरोँ की मुस्कान
एक बोझ जैसा
मान लिया जाता है उसको
ईश्वर की अनमोल रचना है वो
इस सृष्टि की रचयिता है वो
नव जीवन की कोपलेँ पल्लवित
होती हैँ उसके अंतर मेँ
है भेद इस समाज के मन मेँ
जो जन्मदाता है जीवन की
सदा लडती है
अपने अस्तित्व को बचाने
जन्म से ले कर मृत्यु तक
हर पल है संघर्षरत
बन्ध जाती है बेडियाँ मेँ जन्म से ही
कुटुम्ब की व समाज की
उम्मीदों को पूर्ण करने
मान की
सम्मान की की रक्षा करने
सामना करती है सदा
घूरती नज़रोँ का
हर बन्धन उसके लिये है
रिश्तोँ की मर्यादा सिर्फ उसके लिये है
अग्निपरीक्षा से गुज़रना होगा
हर सीता को
सतीत्व को करना होगा प्रमाणित
अहिल्या बन कर
राम की बाट जोहनी होगी
आह्वान करती रहेगी
कृष्ण का पांचाली बन
हम खोखले आदर्शो की लाश ढोते फिरेंगे
खोखले नियमों को पालते रहेंगे
बदलाव की आंधी को आने देवें
इस के लिये स्त्री को
खुद ही लड़ना होगा
नए रास्तों का निर्माण
कुछ नए प्रतिमान
गढ़ने होगें नये संविधान।