सृष्टि
सृष्टि
रीते मन को किस विध बहलाऊँ,
कैसे जीवन प्रफुल्लित पाऊँ ।
झोंका पवन का खुद बन जाऊँ
प्रेम के आँचल को लहराऊँ ॥
व्यर्थ कहाँ इक कण भी जग में ;
प्राण बसे हैं हर इक कण में,
प्रेम बसा है प्राण के प्रण में
प्रेम ही स्त्रोत है हर जीवन में
प्रेम को पा के महत को पाऊँ ॥
मिट्टी में कोंपल का भोग बनूँ
पत्तों में जीवन उद्योग बनूँ
फूलों में बसा पराग बनूँ
फलों का रस और राग बनूँ
पूरी सृष्टि का भाग बनूँ
स्वयं ही सृष्टि बन जाऊँ ॥