संस्कृति की भाषा
संस्कृति की भाषा
कहने वाले कहते रहे अरबी, फारसी, अंग्रेजी
मैंने जाना सबकी जड़ में एक थी ऐसी संस्कृति
सदियों पहले रोंप गए थे , वो, जो कहाए पनिनि
मानव-संरचना पर आधारित रच गए भाषा महर्षि
स्वर जब बाधित होते मुख से तो व्यंजन बन जाए
व्यंजन स्वर की युक्ति से शब्दों की रचना हो पाए
शब्दों से शब्दों को बाँधा तो वचन की धारा बह जाए
वचनों के अर्थ से भांपे मन को वही तो भाषा कहलाए
भाषा मनुष्य बनाता है या भाषा ने मनुष्य बनाए
ये सोचो तो एक पहेली ही है कौन इसे सुलझाए
कलम से जो बनाते रहे दरारें , ज्ञानी कैसे कहलाए ?
जोड़ गए हृदयों की हद, अनपढ़ ऐसे भी कई आए
अक्षर ज्ञान की सरस्वती ने भारत -भूमि को सींचा है
धर्मस्थली यह बन गई, ऐसा रस ऋषियों से बरसा है
सनातनी है देश मेरा भाषा पर आश्रित ना रहता है
हर युग में जन्मे यहाँ, वाल्मिकी ,रैदास और मीरा हैं
बोली जो भी बोली, हिन्द में हिन्दू मैं कहलाया
हिन्द को ही मैंने अपना कर्मस्थान है बनाया
नाम धर्म का क्या जानूँ कि जब से जन्म है पाया
दूराचार से दूर रहा और सद्धर्म को अपनाया ॥
